इस चौदवी पे चाँद को मैं क्या कहूं क्या हो गया
महफ़िल को जिसपे नाज़ था वो साज़ भी क्यों रो गया
पैमाने सारे थे पड़े टूटे नहीं शीशे कहीं
मैंने छुआ न जाम तो, इतना नशा क्यों हो गया
नज़रे तो पूरी साफ थीं आया नहीं तूफां कोई
हम भी सके न देख क्यों उस नूर को जो खो गया
इस चौदवी पे चाँद को मैं क्या कहूं क्या हो गया
महफ़िल को जिसपे नाज़ था वो साज़ भी क्यों रो गया
-:रिशु कुमार दुबे "किशोर":-
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