Thursday 5 May 2022

एक शाम बैठा जो जीवन का हिसाब कर

 कुछ को लगता है की मैंने बहुत कुछ पा लिया है, और सच कहूं तो मुझे भी कभी कभी ऐसा ही लगता है


फिर एक शाम करने बैठा हिसाब तो, गिनता रहा उँगलियों पर उन वर्षों को और कहीं खोने सा लगा। उन्हीं क्षणों की एक धुंधली से यादों का वर्णन :-



एक शाम बैठा जो जीवन का  हिसाब कर, 

गिनता रहा साल अपनी उँगलियों पर।

 कोसों दूर के सज़र, कुछ पुराने से घर,

 कुछ शामें कुछ सहर, कुछ वक़्त कुछ पहर |

 कुछ अजीब सी फितरतें,

 कुछ छोटी छोटी हसरतें | 

 तितलियाँ पकड़ना वो रंगों को चुन चुन के,

 हवा में उड़ाना बुलबुले वो साबुन के |

घर आना गंदे हो, खुशी में नहा के पर,

एक शाम बैठा जो.......



 चुटुक चुटुक करती वो बाग़ की गिलहरी,

 गेहूं के डंढल की बजाते पिपिहरी|

 कंचे को देखकर दिमाग में थी खुजली,

 मग भर के पानी में टेढ़ी क्यों उंगली|

 बिना मंजिलों वाले वो छोटे छोटे रास्ते,

 वो बंद करना ऑंखें छुपने के वास्ते |

जलेबी वो मेले की, खाते थे जी भर कर,

एक शाम बैठा जो.......


पीपल के नीचे का कीत कित, क़ित कित्था,

पोखरे की बगिया में कूदते थे जब चिक्का।

 राजा की हजार और, मंत्री की आठ सौ,

 चोर पर्ची शून्य वाली, सिपाही वाली चार सौ ।

गदहा उड़ान में, फंसाना था सधे को,

कौवे और तोते में, उड़ा देते गधे को।

चढ़ते ही सीढ़ी पर, सांप काटने का वो डर,

एक शाम बैठा जो .......


और  कुछ लम्हो पर तो कई वर्षों का ये सख्सियत रो पड़ा


                                -:रिशु कुमार दुबे "किशोर":-

साबरमती के संत

 साबरमती के संत हां तुमने सच में क्या कमाल किया था,

जिसने तुमपे किया भरोसा, उसको ही बिन ढाल कीया था।


लाखों मुंड अगणित रुण्डों के बिना खड्ग तलवार कटे थे,

ट्रेन के डिब्बे सने रक्त और शव के  तो अंबार पटे थे।


तरकश में जिनके भी तीर थे

उनको भी तुम किये स्थीर थे,

बीच समर में छोड़ हटे तुम

प्यादों से पिट गए वजीर थे।


कैसी सोच और मनः स्थिति लगते हैं बस पात्र हंसी के,

जिस भारत की कोख से जन्मे, बन बैठे तुम पिता उसी के।



  -:रिशु कुमार दुबे "किशोर":-

इस चौदवी पे चाँद को मैं क्या कहूं क्या हो गया

 इस चौदवी पे चाँद को मैं क्या कहूं क्या हो गया 

महफ़िल को जिसपे नाज़ था वो  साज़ भी क्यों रो गया


पैमाने सारे थे पड़े टूटे नहीं शीशे कहीं

मैंने छुआ न जाम तो, इतना नशा क्यों हो गया 


नज़रे तो पूरी साफ थीं आया नहीं तूफां कोई

हम भी सके न देख क्यों उस नूर को जो खो गया 


इस चौदवी पे चाँद को मैं क्या कहूं क्या हो गया 

महफ़िल को जिसपे नाज़ था वो  साज़ भी क्यों रो गया


  -:रिशु कुमार दुबे "किशोर":-

हर एक कदम पे साथ तेरी याद ने दिया

 हर एक कदम पे साथ तेरी याद ने दिया

बेचैन जितना था मैं वो भी रात ने किया


आये थे रौशनी में शाम होते ही चल दिए

ये शाम है उसकी गवाह जो आप ने किया


सोचा था वो बताएँगे की प्यार भी क्या चीज है,

मुझको नसीहत प्यार में जज़्बात ने दिया 


शायद करे अहसास वो अपने कुसूर का 

की प्यार के एक जख्म को नासूर कर दिया


माँगा तो जिंदगी था पर वो नहीं मिली

क्या सोच के मोहलत मुझे मेरी मौत ने दिया


मोहलत भी जो मिली मुझे तेरी याद के खातिर

उसको भी तेरी राह में बरबाद कर दिया 



  -:रिशु कुमार दुबे "किशोर":-