खूबसूरत यहां है फंसाने कई, वाकया सच लिखूं या फसाने लिखूं?
कर गुजरने को जो आज जी चाहता, चाहतें वो लिखूं या बहाने लिखूं?
सूनी महफ़िल में देखे तराने कई।
मैं वो महफ़िल लिखूं या तराने लिखूं?
खूबसूरत यहां है फंसाने कई, वाकया सच लिखूं या फसाने लिखूं?
प्यार के उस जमाने की यादें कई।
मैं वो यादें लिखूं या जमाने लिखूं?
खूबसूरत यहां है फंसाने कई, वाकया सच लिखूं या फसाने लिखूं?
ज़ख्म अबतक के दिल में हैं ताज़े कई।
ज़ख्म अब के लिखूं ता पुराने लिखूं?
खूबसूरत यहां है फंसाने कई, वाकया सच लिखूं या फसाने लिखूं?
खूबसूरत यहां है फंसाने कई, वाकया सच लिखूं या फसाने लिखूं।
कर गुजरने को जो आज जी चाहता, चाहतें वो लिखूं या बहाने लिखूं?
:-रिशु कुमार दुबे "किशोर"-:
:: नीचे शायरी सहित पूरी ग़ज़ल है::
वक्त का ये कैसा तकाज़ा है, पत्थरों के बीच शीशे का महल क्यों है?
जिस जमाने को बीते जमाने हुए, उस जमाने की दिल में मचल क्यों है?
०.
खूबसूरत यहां है फंसाने कई, वाकया सच लिखूं या फसाने लिखूं।
१.
कर गुजरने को जो आज जी चाहता, चाहतें वो लिखूं या बहाने लिखूं?
कोई धुंधला उजाला सा था एक तरफ, और चमकती सी एक रोशनी स्याह थी.......
२.
सूनी महफ़िल में देखे तराने कई।
मैं वो महफ़िल लिखूं या तराने लिखूं?
वो पल वो वक्त वो दिन प्यार के, अब भी मेरी सांसों में जिंदा हैं कहीं.......
३.
प्यार के उस जमाने की यादें कई।
मैं वो यादें लिखूं या जमाने लिखूं?
ज़र्रे ज़र्रे में एक दर्द जैसा है, जो भी हो तेरा अहसास तो देता है........
४.
ज़ख्म अबतक के दिल में हैं ताज़े कई।
ज़ख्म अब के लिखूं ता पुराने लिखूं?
खूबसूरत यहां है फंसाने कई, वाकया सच लिखूं या फसाने लिखूं।
कर गुजरने को जो आज जी चाहता, चाहतें वो लिखूं या बहाने लिखूं?
-:रिशु कुमार दुबे "किशोर":-
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