हम बदलेंगे युग बदलेगा, शुभ अवसर पर प्रण ये लेलो
सत्य अहिंसा की वेदी पर बैठ के तुम आकाश को छु लो
जो १८५७ में स्वतंत्रता की ज्वाला थी
१९४७ में वो विजय फूल की माला थी
इसके इतर तभी कही से बटवारे की आग लगी
कहीं अभी भी उसी आग की चिंगारी है सुलग रही
प्रेम के जल से उस अग्नि को बुझा दो फिर तो खुसी से फूलो
सत्य अहिंसा की वेदी ......................................
उनके जीवन में ख़ुशी थी देश पे जो बलिदान हो गए
अपने देश की खुशियों खातिर, युद्ध भूमि में प्राण को गए
जमती ही गयीं उनकी नब्ज़ें, पर इंकलाब का साज़ न त्यागे
इच्छा नहीं की खुद के सुख की , कभी भी कोई ताज न मांगे
कफ़न बांध जो देश जो पूजे, शुभ अवसर पर उन्हें न भूलो
सत्य अहिंसा की वेदी ......................................
अँधेरे में जो बैठे हैं, उनकी जीवन में प्रकाश भरो
"काम देश के आएं हम भी" ऐसी इच्छा मन में करो
जिसमे देशहित हो सर्वोपरि, सपनो को वो पत्ते खोलो
अपनी कीर्ति ही न देखो, कमियों को भी कभी टटोलो
बैठ किसी सुख की नैया में सपनो की लहरों पे न झूलो
सत्य अहिंसा की वेदी ......................................
भारत के इस हरित चमन के नन्हें मुन्हें नटखट फूलों
सत्य अहिंसा की वेदी ......................................
-:रिशु कुमार दुबे "किशोर" :-
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" शनिवार 30 जनवरी 2016 को लिंक की जाएगी ....
ReplyDeletehttp://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!